मंगलवार, 2 जून 2009

बागोर की हवेली में हस्तशिल्प संग्रहालय


उदयपुर में पिछोला झील के किनारे तथा प्रसिद्ध जगदीश मंदिर से करीब सौ मीटर की दूरी पर गणगौर घाट पर स्थित बागोर की हवेली संग्रहालय बनाया गया है। बागोर की हवेली के ऐतिहासिक महत्व को ध्यान में रखते हुए तथा इसे प्राचीन स्वरूप में पुर्नस्थापित करने के लिए 1992 में इसके कायाकल्प का निर्णय लिया गया। संग्रहालय की स्थापना का मुख्य ध्येय मेवाड़ के राजसी वैभव को हवेली संस्कृति के प्रतीक रूप में दर्शाना है। इन कक्षों मे दैनिक उपयोग की वस्तुएं अलंकार-मंजूषा, सांप-सीढ़ी व चौपड़ जैसे खेल, हस्तचालित पंखे, गुलाब जल छिड़कने का यंत्र, तांबे के पात्र व अन्य घरेलु वस्तुएं इस संग्रहालय में प्रदर्शित की गई है।लगभग 75 लाख रूपये व्यय करने तथा पांच वर्ष के अथक प्रयासों के बाद, पारंपरिक आराईश पद्धति के प्रयोग व स्थानीय लोगों के कौशल से हवेली का उसके मूल स्वरूप में पुनरूद्धार किया गया, जिसमें हवेली में 19वीं व 20वीं शताब्दी में निर्मित भित्तिचित्रों को पारंपरिक एवं रासायनिक प्रक्रिया द्वारा चूने की परतों से उकेर कर दृश्यमान करना, दरवाजो, खिडकियों व रंग-बिरंगे कांच जड़ित जालीदार झरोखों की मरम्मत उल्लेखनीय है। इस संग्रहालय को राजसी वैभव देने के लिए राजपरिवार से जुड़े लोगों की सहायता ली गई। इसमें रानी के महल (जनाना महल) की भीतरी सज्जा को दर्शाया गया जिसमें बैठक कक्ष, शनय कक्ष, स्नानागार, श्रृंगार कक्ष, आमोद-प्रमोद कक्ष, पूजाघर तथा रसोईघर, राजमाता का कक्ष सुसज्जित किए गए है।
मुख्य आकर्षण
- शहर की सर्वश्रेष्ठ वास्तुशिल्प

-हवेली - राजसी वैभव एवं हवेली संस्कृति का प्रतीक दर्शन

- कांच जड़ित कार्य

-भित्ति चित्र

समय - प्रात: 10 ।00 से सायं 7।00 बजे तक

शुल्क - विदेश 25- रूपये, वयस्क 15- रूपये, बालक 7- रूपये

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

पुरी के एक शिल्पी की पुरानी कहानी


पुरी के एक साधारण मुहल्ले में कई कारीगरों का घर है । ये लोग अब जगन्नाथ जी की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनाते हैं या घर, आँगन में लगाये जाने वाले पत्थर काटकर दिन में बारह-चौदह आना कमा लेते हैं । इन्हीं में एक व्यक्ति का नाम था राम महाराणा। देखने में सुशील व सिर पर लम्बे बाल रखे हुए वह छोटी उम्र का ही था । उसे गीत गाना व यात्रा करना अच्छा लगता था । राम के साथ मेरा परिचय अचानक ही हुआ । कला के शौकीन एक सज्जन कोणार्क के मन्दिर में कुछ मूर्तियों की नक़ल बनाने के लिए राम को साथ लेकर गये थे । वहीं राम से मेरी पहली बातचीत हुई ।

राम के हाथ की दक्षता को देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । छेनी के भाँति कई यन्त्रों से राम थोड़ी ही देर में आश्चर्यजनक शीघ्रता के साथ पत्थर के एक टुकड़े को सजीव रुप दे देता था । वास्तव में इन मूर्तियों का आदर नहीं था । लगता था कि लोग जगन्नाथ की मूर्ति चाहते हैं, परन्तु पुरी के मन्दिर पर नर-नारी के काम-भाव की जो मूर्तियाँ हैं, लोग चुपके-चुपके उसकी प्रतिकृति बनवा लेते थे । इसी से राम को थोड़ा-बहुत पैसा मिल जाता था । शिल्पशास्र की विद्या सीखने में राम के घर प्राय: जाया करता था । बातचीत होने पर पता चला कि वास्तव में राम एक गुणी व्यक्ति है । यद्यपि वह अश्लील मूर्तियाँ बेचकर खाता है तथापि मात्र खाता भर है, यह नहीं कहा जा सकता । वास्तव में उसके प्राण शिल्प के कारण ही कंगाल थे । वह स्वयं एक शिल्पी का पुत्र था । छोटी ही उम्र में वह छेनी और हथौड़ी पकडऩा सीख गया था । जिस प्रकार से उसके पूर्वजों ने पुरी या भुवलेश्वर के मन्दिरों का निर्माण किया था, उसी कौशल से कुछ उसने वंश परम्परानुसार सीखा, परन्तु अन्य देशों के शिल्प वास्तव में जितने सुन्दर थे, उतने ही सहज रुप में उसे आकृष्ट करते थे ।

एक दिन विदेशियों के पास मूर्तियों के अनेक चित्र देखकर राम खुशी से उछल पड़ा । वह बोला, 'भैया, एक बार मुझे कलकत्ता ले चलो । मैं इसी प्रकार की मूर्ति बनाना सीखूँगा।' मैंने उससे पूछा, 'जो शिल्प तुम जानते हो, वही क्या कम है ? तुम क्यों दूसरों का शिल्प सीखोगे ?' राम द:खी होकर बोला, 'यह तो कोई नहीं चाहता भैया । देखिए न, विदेशी लोग कितनी खऱाब मुर्तियाँ पाँच रुपया देकर खरीदते हैं और हमारी मूर्ति खरीदते समय दस आना देंगे या नौ आना देंगे, इसी को लेकर झगड़ा करते हैं । कहते हैं, नौ आना ही तो काफ़ी है और इसे बनाने में समय ही कितना लगा है ।' राम महाराणा के हृदय में समाज का यह दोहरा भाव हमेशा काँटे की तरह चुभता था। अपना शिल्प बहुत अच्छा है, इस विषय में उसे कोई सन्देह नहीं था, परन्तु औरों का शिल्प खऱाब है, उसके मन में ऐसा कभी नहीं लगा । शहर के सम्पन्न लोग देशी या विदेशी शिल्प के बिन्दु-विसर्ग को बिना समझे धन के अंधकार में मत्त होकर मात्र विदेशी वस्तुओं को घर में टाँगते हैं, वह यही सहन नहीं कर पाता था । इसीलिए बड़े लोगों पर वह एक तरह से कुपित रहता था । वास्तव में मनुष्य के थोड़े प्रेम और थोड़े सम्मान के लिए राम तरसता था ।

एक दिन अचानक शाम को मेरे घर आकर राम ने एक हारमोनियम माँगा । मेरे पास हारमोनियम कहाँ था ? अंतत: एक पड़ोसी के घर से हारमोनियम लाया और तब राम उस अँधेरी रात की निस्तब्धता को तोड़कर कई लोगों को साथ मिलकर विविध प्रकार की दुर्बोध्य तान छेडऩे लगा । बीच-बीच में राम के उत्पात को इसी प्रकार सहन करना पड़ता था । बीच-बीच में राम कहता,परन्तु भद्र लोगों से मिलने पर भी तो वे खाने को देते नहीं । इसीलिए राम को पैसा कमाने का प्रयास करना पड़ता था । कलकत्ते में मेरे कई मित्रों ने राम की बनाई मूर्ति को देखकर उन्हें खऱीदने की इच्छा प्रकट की थी । राम मूर्ति बनाकर मेरे पास रख जाता था । मैं भी समय देखकर उन्हें मित्रों और रिश्तेदारों के गले बाँध देता था । फिर भी इस तरह से अधिक आमदनी नहीं होती थी । इसमें कभी आमदनी होती तो कभी एक पैसा भी नहीं जुटता, परन्तु इससे राम के कार्य करने का उत्साह दोगुना बढ़ गया । भुवनेश्वर के प्राचीन मन्दिरों पर जितनी अपूर्व मूर्तियों, पत्तों व लताओं की सजावट है, वह इसी की नक़ल बनाने लगा 'भैया, जानते हैं हाथ में काम आने पर मन कैसा लगता है ? सारे पुरी शहर में घर-द्वार जहाँ कहीं भी जो कुछ भी हैं, सबके मैं अपने शिल्प से भर सकता हूँ ।' उसके उत्साह को देखकर मुझे अच्छा भी लगता था और दु:ख भी होता था । मुझे लगता कि क्या कोई इनका आदर करेगा या कोई इन्हें बचाकर रखेगा ?

एक दिन शाम को मैं घर में बैठकर कुछ कर रहा था, तभी राम बाबू हाजिर हुए । उनका मुँह उतरा हुआ था । उनके चेहरे को देखकर कुछ संदिग्ध लगा । बिना और कुछ बोले वह अपनी गढ़ी हुई मूर्तियाँ वापस माँगने लगा । उसके दो-एक दिन पहले राम एक बार पैसे के लिए घर आया था, परन्तु कोई भी मूर्ति न बिक सकने पर मैं उसे कुछ भी नहीं दे सका था । आज उसके चेहरे के भाव को देखकर मुझे कुछ पूछने का साहस नहीं हुआ । मैंने भीतर की अलमारी से मूर्तियाँ निकालकर राम के हाथ में दे दी । राम ने चुपचाप उन्हें उठाकर दूर कँटीली झाडिय़ों मे फेंक दिया। उसके इस कार्य को देखकर मैं कुछ नहीं बोल सका । वह भी जैसे आया था, वैसे ही लौट आया ।

अगले दिन शाम को राम महाराणा मेरे घर आया । मैंने देखा कि वह घर के दरवाजे पर बैठ कर तन्मय होकर एक मूर्ति बना रहा है । मुझे देखकर लज्जावश पहले तो उसने कुछ नहीं कहा, परन्तु उसके बाद जब मैंने पिछली रात वाली घटना की बात उठायी तो वह हिचक-हिचक कर रोने लगा । काफ़ी देर बाद मैं समझ पाया कि किसी ने उसके भाई को किसी काम के लिए कुछ रुपया उधार दिया था और इसीलिए कल उसने उसके भाई को अपमानित किया । इसी घटना से मर्माहत होकर उसने अपनी सारी मूर्तियों को तोड़ दिया । राम दु:खी होकर बोला, 'कोई भी हमारा काम पसन्द नहीं करता। जो सीढ़ी का पत्थर बनाते हैं, वे भी बारह आना पाते हैं और मैं मूर्ति गढऩे पर भी बारह आना नहीं पाता ।' इसी दु:ख से राम पागलों की तरह हो गया था । समाज से उसे कोई प्यार या आदर नहीं मिला । उस पर शायद राम को लोभ भी था, परन्तु देश के लोग तो उसे खाने तक को नहीं देते । वह अपनी बात को ठीक प्रकार से नहीं कह पाता, ऐसा कहकर निष्ठुर भाव से वे घर आकर अपमान करके चलो जाते हैं । वही राम से मेरी अन्तिम भेंट थी ।

उसके बाद बहुत दिनों तक इसी तरह मैं देश-विदेश घुमता रहा । बहुत दिनों बाद जब पुन: मैं लौटकर वहाँ आया तो मैंने सुना कि राम महाराणा की मृत्यु हो गई । पाथुरिया मुहल्ले के एक शिल्पी ने बताया कि बहुत दिनों तक लगातार धतूरा खाकर राम ने एक तरह से आत्म-हत्या ही कर ली । राम के घर पर उसकी विधवा स्री सुबह-सुबह दरवाज़े पर गोबर लीप रही थी । मुझे देखकर, घूँघट काढ़कर उसने मुझे प्रणाम किया । परन्तु क्या हुआ था यह पूछने की मेरी और इच्छा नहीं हुई ।

('शिल्पी' से साभार)

शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

बौद्ध कला की बेमिसाल कृतियां

सांची के स्तूप दूर से देखने में भले मामूली अ‌र्द्ध गोलाकार संरचनाएं लगें लेकिन इसकी भव्यता, विशिष्टता व बारीकियों का पता सांची आकर देखने पर ही लगता है। इसीलिए देश-दुनिया से बडी संख्या में बौद्ध मतावलंबी, पर्यटक, शोधार्थी, अध्येता इस बेमिसाल संरचना को देखने चले आते हैं। सांची के स्तूपों का निर्माण कई कालखंडों में हुआ जिसे ईसा पूर्व तीसरी सदी से बारहवीं सदी के मध्य में माना गया है। ईसा पूर्व 483 में जब गौतम बुद्ध ने देह त्याग किया तो उनके शरीर के अवशेषों पर अधिकार के लिए उनके अनुयायी राजा आपस में लडने-झगडने लगे। अंत में एक बौद्ध संत ने समझा-बुझाकर उनके शरीर के अवशेषों के हिस्सों को उनमें वितरित कर समाधान किया। इन्हें लेकर आरंभ में आठ स्तूपों का निर्माण हुआ और इस प्रकार गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार इन स्तूपों को प्रतीक मानकर होने लगा।
सांची की स्थापना
बौद्धधर्म व उसकी शिक्षा के प्रचार-प्रसार में मौर्यकाल के महान राजा अशोक का सबसे बडा योगदान रहा। बुद्ध का संदेश दुनिया तक पहुंचाने के लिए उन्होंने एक सुनियोजित योजना के तहत कार्य आरंभ किया। सर्वप्रथम उन्होंने बौद्ध धर्म को राजकीय प्रश्रय दिया। उन्होंने पुराने स्तूपों को खुदवा कर उनसे मिले अवशेषों के 84 हजार भाग कर अपने राज्य सहित निकटवर्ती देशों में भेजकर बडी संख्या में स्तूपों का निर्माण करवाया। इन स्तूपों को स्थायी संरचनाओं में बदला ताकि ये लंबे समय तक बने रह सकें।
सम्राट अशोक ने भारत में जिन स्थानों पर बौद्ध स्मारकों का निर्माण कराया उनमें सांची भी एक था जिसे प्राचीन नाम कंकेनवा, ककान्या आदि से जाना जाता है। तब यह बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विकसित हो चुका था। ह्वेन सांग के यात्रा वृत्तांत में बुद्ध के बोध गया से सांची जाने का उल्लेख नहीं मिलता है। संभव है सांची की उज्जयनी से निकटता और पूर्व से पश्चिम व उत्तर से दक्षिण जाने वाले यात्रा मार्ग पर होना भी इसकी स्थापना की वजहों में से रहा हो। सम्राट अशोक की महारानी चन्द्र विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री थीं जहां से सांची की पत्थर युक्त पहाडी दिखाई देती थी। सांची का उस दौर में कितना महत्व रहा होगा इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि अशोक के पुत्र महेंद्र व पुत्री संघमित्रा श्रीलंका में धर्म प्रचार पर जाने से पूर्व यहां मठ में रहते थे जहां पर उनकी माता का भी एक कक्ष था।
हर धर्म की भांति बौद्ध कालीन संरचनाओं को उनकी मान्यताओं के अनुसार बनाया गया। बौद्धधर्म में ईश्वरवादी सिद्धांत के स्थान पर शिक्षाओं का महत्व है। इन संरचनाओं में मंदिर से परे स्तूप एक नया विचार था। स्तूप संस्कृत व पाली से निकला माना जाता है जिसका अर्थ होता है ढेर। आरंभ में केंद्रीय भाग में तथागत [महात्मा बुद्ध] के अवशेष रख उसके ऊपर मिट्टी पत्थर डालकर इनको गोलाकार आकार दिया गया। इनमें बाहर से ईटों व पत्थरों की ऐसी चिनाई की गई ताकि खुले में इन स्तूपों पर मौसम का कोई प्रभाव न हो सके। स्तूपों में मंदिर की भांति कोई गर्भ गृह नहीं होता। अशोक द्वारा सांची में बनाया गया स्तूप इससे पहले के स्तूपों से विशिष्ट था।
बौद्ध कला की सर्वोत्तम कृतियां
सांची में बौद्ध वास्तु शिल्प की बेहतरीन कृतियां हैं जिनमें स्तूप, तोरण, स्तंभ शामिल हैं। इनमें स्तूप संख्या 1 सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था जिसमें महात्मा बुद्ध के अवशेष रखे गए। करीब में यहां पर दो अन्य छोटे स्तूप भी हैं जिनमें उनके दो शुरुआती शिष्यों के अवशेष रखे गए हैं। पहले स्तूप की वेदिका में जाने के लिए चारों दिशाओं में तोरण द्वार बन हैं। पूरे स्तूप के बाहर जहां पहले कठोर लकडी हुआ करती थी आज पत्थरों की रेलिंग है। अंदर वेदिका है व कुछ ऊंचाई तक जाने के लिए प्रदक्षिणा पथ है। स्तूप के गुंबद पर पत्थरों की वर्गाकार रेलिंग [हर्मिका] बनी है व शिखर पर त्रिस्तरीय छत्र है।
स्तूप की वेदिका में प्रवेश के लिए चार दिशाओं में चार तोरण [द्वार] हैं। पत्थर से बने तोरणों में महात्मा बुद्ध के जीवन की झांकी व जातक प्रसंगों को उकेरा गया हैं। यह कार्य इतनी बारीकी से किया गया है के मानो कारीगरों ने कलम कूंची से उनको गढा हो। इस स्तूप के दक्षिणी तोरण के सामने अशोक स्तंभ स्थापित है। इसका पत्थर आस-पास कहीं नहीं मिलता है। माना जाता है कि 50 टन वजनी इस स्तंभ को सैकडों कोस दूर चुनार से यहां लाकर स्थापित किया गया। यहां पर एक मंदिर के अवशेष है जिसे गुप्तकाल में निर्मित माना गया है। सांची के स्तूपों के समीप एक बौद्ध मठ के अवशेष हैं जहां बौद्ध भिक्षुओं के आवास थे। यही पर पत्थर का वह विशाल कटोरा है जिससे भिक्षुओं में अन्न बांटा जाता था। यहां पर मौर्य, शुंग, कुषाण, सातवाहन व गुप्तकालीन अवशेषों सहित छोटी-बडी कुल चार दर्जन संरचनाएं हैं।
शुंग काल में सांची में अशोक द्वारा निर्मित स्तूप को विस्तार दिया गया जिससे इसका व्यास 70 फीट से बढकर 120 फीट व ऊंचाई 54 फीट हो गई। इसके अलावा यहां पर अन्य स्तूपों का निर्माण कराया। सांची में इन स्तूपों का जीर्णोद्धार लंबे समय तक चला जिसमें इसे अद्वितीय बनाने के लिए कल्पना शक्ति का इस्तेमाल किया गया। इसके बाद शुंग व कुषाण नरेशों ने अपने काल में यहां पर अन्य स्तूप निर्मित करवाए।
मौर्य, शुंग, कुषाण सातवाहन व गुप्तकाल तक बौद्ध धर्म फलता फूलता रहा किन्तु इनके पतन के उपरांत राजकीय कृपादृष्टि समाप्त होने से बौद्ध धर्म का अवसान होने लगा। लेकिन बाद के शासकों ने बौद्ध स्मारकों व मंदिरों को यथावत रहने दिया। सांची की कीर्ति राजपूत काल तक बनी रही किंतु पहले तुकरें के आक्रमण और बाद में मुगलों की सत्ता की स्थापना के बाद यह घटने लगी। औरंगजेब के काल में बौद्ध धर्म का केंद्र सांची गुमनामी में खो गया। उसके बाद यहां चारों ओर घनी झाडियां व पेड उग आए।
19वीं सदी में कर्नल टेलर यहां आए तोउन्हें सांची के स्तूप बुरी हालत में मिले। उन्होंने उनको खुदवाया और व्यवस्थित किया। कुछ इतिहासकार मानते हैं उन्होंने इसके अंदर धन संपदा के अंदेशे में खुदाई की जिससे इसकी संरचना को काफी नुकसान हुआ। बाद में पुराविद मार्शल ने इनका जीणरेंद्घार करवाया। चारों ओर घनी झाडियों के मध्य सांची के सारे निर्माण का पता लगाना और उनका जीणरेंद्वार कराके मूल आकार देना बेहद कठिन था, किंतु उन्होंने बखूबी से इसकी पुरानी कीर्ति को कुछ हद तक लौटाने में मदद की।
धर्म व पर्यटन का संगम
1989 में यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल होने के बाद से सांची का महत्व बहुत बढा। बौद्ध धर्म का प्रमुख केंद्र होने के कारण यहां पर देशी व विदेशी मतावलंबियों का जमावडा लगा रहता है। सांची की भव्यता को देखने को प्रतिदिन हजारों पर्यटक पहुंचते हैं जिनमें विदेशी सैलानियों की बडी संख्या होती है। इस सारे परिसर के प्रबंधन व संरक्षण का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है। यहां का पुरातत्व संग्रहालय भी दर्शनीय है। आरंभ में वर्ष 1919 में इसे स्तूपों के निकट बनाया गया था किंतु जैसे-जैसे सामग्री की प्रचुरता होने लगी इसे 1986 में सांची की पहाडी के आधार पर नए संग्रहालय भवन में स्थानांतरित कर दिया गया। इस संग्रहालय में मौर्य, शुंग, सातवाहन, कुषाण, गुप्त कालीन प्रस्तर कला के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख आदि देखने को मिलते हैं। सांची के इन स्मारकों की भव्यता तो आगन्तुकों को चमत्कृत करती ही है, साथ में यहां का शांत वातावरण हर आने वाले को महात्मा बुद्ध के शांति के संदेश को समझाने में मदद देता है।

मंगलवार, 6 जनवरी 2009

हड़ताल से हजारों हेंडी क्राफ्ट आर्टीजन फंसे

ट्रक आपरेटरों के देशव्यापी अनिश्चितकालीन हड़ताल पर चले जाने से हेंडी क्राफ्ट मेलों के कारोबार से जुड़े हजारों आर्टीजन अपने ठिकानों से बाहर जाकर फंस गए है। इनदिनों राजस्थान में ही कम से कम छ हजार से अधिक शिल्पी अटके हुए है। मेलों और प्रदर्शनियों के समापन के बाद वे अपना सामान अन्यत्र नहीं ले जा पा रहे। उधर जिंसों एवं खान-पान की कीमतों में बढ़ोतरी होने के कारण उन्हें भारी नुकसान होने की भी आशंका है। हड़ताली ट्रक मालिकों के मुद्दे सुलझाले के लिए सरकार की तरफ से कोई गंभीर पहल नहीं हुई है। हमारी भूतल परिवहन मंत्रालय के साथ शनिवार और रविवार को बैठकें हुई थी, लेकिन इसमें कोई परिणाम नहीं निकला।
डीजल की कीमतों में दस रुपये लीटर की कमी किए जाने और कुछ अन्य मांगों को लेकर केंद्र सरकार के साथ बातचीत विफल होने के बाद विभिन्न राज्यों में ट्रक आपरेटरों ने माल ढुलाई रोक दी है।
इस हड़ताल में ट्रक आपरेटरों की 4000 एसोसिएशन शामिल हैं। हड़ताल अगर चार-पांच दिन तक जारी रहती है तो इससे आवश्यक वस्तुओं की कीमतें उछल जाएंगी और शिल्पिओं को भी नुकसान होगा।
ट्रक मालिकों ने डीजल सस्ता करने के साथ ही टायर के अधिक मूल्य परमिटों की समस्या को दूर करने की लेकर सरकार से इस क्षेत्र के लिए भी सहायता पैकेज जारी करने की मांग की है।
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में आई भारी गिरावट के मद्देनजर डीजल की कीमत में 10 रुपये प्रति लीटर की कटौती की मांग है। ट्रक मालिकों ने डीजल पर सामान चार फीसदी का मूल्य वर्धित कर [वैट] लगाए जाने नए मोटरवाहन अधिनियम में पंजीकरण और रिटर्न दाखिल किए जाने के प्रावधान खत्म करने तथा राष्ट्रीय स्तर के परमिट [एनपी] के शुल्क को 5000 रुपये से घटाकर 1500 रुपये करने की मांग की है।