बुधवार, 13 नवंबर 2013

काश! कला जगत में 'मैं' की जगह 'हम' हो


 मूमल संपादकीय
चहुमुखी सराहना तो कुछ आलोचना भी

जयपुर का पहला आर्ट समिट सम्पन्न हो गया। ...और जैसा कि अक्सर होता रहा है, इसके आयोजन के प्रति भी विरोधी स्वर मुखर हुए। समिट की समाप्ती से पहले ही जयपुर के कलाकारों की गुटबाजी के नतीजे सामने आने लगे। मुद्दा वही अहम् का रहा। इस प्रकार एक बेहतर पहल को सराहना के साथ-साथ आलोचना भी मिली।
 माहौल बोझिल हुआ है और संवेदनाए चोटिल
 कला जो कभी सत्यम शिवम सुन्दरम् और सुखाय का दूसरा नाम हुआ करती थी अब उसके पैमाने बदल गए हैं। कलाकारों क बीच की गुटबाजी, राजनीतिक दलों की खेमेबाजी का अहसास कराने लगी है। इसके चलते कला जगत का माहौल बोझिल हुआ है और संवेदनाए चोटिल। ऐसे में आपस में ही लड़ते-भिड़ते कलाकार क्योंकर आम आदमी को कला की ओर आकर्षित कर अपनी कला से उन्हें जोड़ पाएगें। यही कारण है कि कुछ कलाकार तो अब साफ ही कहने लगे हैं कि उनकी खास कला आम आदमी के लिए है ही नहीं।
इस गुटबाजी और एक-दूसरे पर लगाए जा रहे आरोप-प्रत्यारोप को प्रतिस्पर्था का क्रत्रिम चोला नहीं पहनाया जा सकता। स्वस्थ्य प्रतियोगिता तो एक अलग ही शै होती है जो कला को और निखारने का काम करती है। प्रतिस्पर्धियों को  और बेहतर कृतियों का कर्ता बनने को प्रेरित करती है। उसके इरादों को और मजबूत बनाती हैं। आम आदमी से सहजता पूर्वक जोड़ती है। जबकि गुटबाजी कलाकार के संवेदशील मन में विकार और द्वन्द के जाल में उलझा देती है। इसका सीधा असर उसकी कृतियों में देखने को मिल जाता है। साधना से साध्य के बजाय साधन और भोतिकता की ओर बढ़ते कला के कदम इसी का परिणाम है।
मैं के कठघरे में कैद 
हम यह नहीं कह रहे कि निर्मित कलाकृतियां सुंदर नहीं, लेकिन स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा के अभाव में वे कांतिहीन हैं, प्राणहीन भी कह सकते हैं। कला संसार सहजता, सरलता, सद्भाव और संवेदनाओं से सजता है। इसे मैं की जगह हम का भाव प्रभावी बना सकता है। यहां इस बात का अफसोस है कि कलाकार मैं के कठघरे में स्वयं को कैद करता जा रहा है।
 उधेड़ सकते हैं तो बुन भी सकते हैं।
यह सही है कि किसी भी आयोजन में बहुत कुछ अच्छा किए जाने के बाद भी कुछ कमियां रह जाती है। किसी आयोजन में ये कमियां कुछ होती हैं और किसी में बहुत कुछ छूट जाता है। इन कमियों को बेहतर सलाह, सहृदयता, सहनशीलता और साथ के बल पर दूर किया जा सकता है। जब जब एक खेमा अपने आयोजन में दूसरे खेमें की कला को स्थान नहीं दे पाता है तो दूसरे खेमें के आयोजन में पहले खेमे की कला को स्थान नहीं मिलने की विवशताएं उसी प्रकार की होती है जैसी पहले आयोजन के लिए थी। इसी प्रकार किसी फैस्टिवल या समिट के आयोजन में भी कई बाते अलग हो सकती हैं, ऐमें उनकी तुलना बेमानी हो जाती है। कुल मिलाकर हम चाएं तो कमियों की फटी चादर में अपनी मैं की टांग फंसा कर उसे और अधिक उधेड़ सकते हैं और चाहें तो हम के ताने-बाने से उसे बुन भी सकते हैं।